शिक्षा में पिछड़ता हिमाचल, बढता निजीकरण

शिक्षा बचाओ, देश बचाओ

शिक्षा पर चर्चा

गांव से लेकर राष्ट्रीय शिक्षा असेंबली तक चर्चा

14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती से 30 अप्रैल 2023 तक

 

हिमाचल प्रदेश में निजी स्कूलों की संख्या सरकारी स्कूलों की संख्या के अनुपात में कम है, लेकिन निजी स्कूलों में छात्रों की संख्या काफी अधिक है। प्रदेश में 18212 सरकारी स्कूल हैं जबकि निजी स्कूल सिर्फ 2778 हैं। 1998 में प्रोफेसर जीन द्रेज़ ने शिक्षा के सर्वे पर आधारित प्रोब रिपोर्ट (PROBE- Public Report on Basic Education) में प्रदेश में निजी स्कूल बहुत ही कम हैं और आज 38 प्रतिशत छात्र निजी स्कूलों में हैं। 2018 में 41% छात्र निजी स्कूलों में थे जिसमें से लगभग 3 प्रतिशत छात्र वापिस सरकारी स्कूलों में महामारी के बाद आ गए जिसकी वजह निजी स्कूलों की बढ़ती फीस थी और सरकारी स्कूलों में बढ़ती गतिविधियाँ रही। प्राथमिक स्तर में 45% और उच्च प्राथमिक कक्षाओं में 39% से अधिक छात्र निजी स्कूलों में हैं जबकि उच्च कक्षाओं में यह विपरीत है जहां केवल 21% छात्र निजी स्कूलों में हैं। सबसे ज़्यादा निजीकरण 1-3 कक्षा में हो रहा है जहां 70% बच्चे निजी स्कूलों में जाते हैं। अनुसूचित जाति के 1-12 कक्षा तक पढ़ने वाले कुल बच्चों में से 78% बच्चे और 1-12 कक्षा में पढ़ने वाली कुल लड़कियों में से 64% लड़कियां सरकारी स्कूलों में पढ़ रही हैं। सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित तबका जो निजी शिक्षा का खर्च नहीं उठा सकता, उसे सरकारी स्कूलों में छोड़ दिया जाता है। लड़कियों को भी लगभग इसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। सामाजिक इलीट ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से हटा लिया है। आंध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश के बाद हिमाचल में देश में सबसे अधिक निजीकृत शिक्षा प्रणाली है, हालांकि सरकारी स्कूलों में प्रति छात्र खर्च देश में सबसे अधिक यानी 3279 रुपये प्रति माह है।

हिमाचल प्रदेश में 3148 स्कूल ऐसे हैं जो एक अध्यापक के सहारे चल रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से यह आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है। वर्ष 2020-21 में 1993 स्कूलों में सिंगल अध्यापक थे तथा वर्ष 2021-22 में यह आंकड़ा 2922 हो गया। बिना बच्चों वाले 228 प्राथमिक स्कूलों को हाल ही में बंद कर दिया गया है। इसके अलावा 1 अप्रैल, 2022 से खोले गए उन 17 प्राथमिक स्कूलों को भी 31 मार्च, 2023 से बंद कर दिया गया है जहां पर विद्यार्थियों की संख्या 10 या उससे भी कम है।

शिक्षा विभाग की 2013 में बनी एक आतंरिक सरकारी रिपोर्ट “प्रारंभिक शिक्षा में गुणवत्ता की खोज, चुनौती और आगे बढ़ने का रास्ता” बताती है कि प्रदेश में वास्तविक चुनौती गुणवत्ता की है क्योंकि स्कूलों में पढ़ाई सही ढंग से नहीं हो रही है, कक्षा के संचालन की गुणवत्ता कम हो गई है और जवाबदेही गायब होती दिख रही है।

मल्टी-ग्रेड शिक्षण, बार-बार के तबादलों, गैर-तर्कसंगत तैनाती, गैर-शिक्षण गतिविधियों के भार और शिक्षक प्रशिक्षण की खराब गुणवत्ता से सरकारी शिक्षण तंत्र प्रभावित हो रहा है। सही भर्ती नीति के अभाव में शिक्षकों को टेन्योर, एडहॉक, वोलंटरी टीचर, संविदा, पीएटी, विद्या उपासक, ग्रामीण विद्या उपासक, पीटीए और एसएमसी शिक्षकों आदि अनेक रूप में नियुक्त किया जा रहा है। इसका सीधा प्रभाव शिक्षा की गुणवत्ता और कक्षा के संचालन पर पड़ता है।

निजी स्कूलों हर साल 15 से 40 प्रतिशत फीस वृद्धि करके अभिभावकों पर भारी आर्थिक बोझ लाद रहें हैं। ड्रेस व किताबों की बेइंतहा कीमतें, वार्षिक कार्यक्रमों, पिकनिकों व टूअरों के नाम पर की जा रही लूट से निजी स्कूलों के प्रति विरोध बढता जा रहा है और प्रदेश के अभिभावक निजी स्कूलों की इस मनमानी के विरोध में छात्र-अभिभावक संघ के बैनर के तले सड़कों पर आने को मजबूर हुए हैं।

इन सबके बीच 2020 में शिक्षा के निजीकरण की दिशा में भारत सरकार ने विश्व बैंक के साथ एक बड़े समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसका नाम है – STARS- Strengthening Teaching-Learning And Results for States। इस परियोजना के पहले चरण में 6 राज्यों हिमाचल, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, केरल, राजस्थान को चुना गया है। इसमें सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी है। कहा यह जा रहा कि शिक्षा क्षेत्र में सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए गैर सरकारी निजी प्रयासों के शिक्षा प्रबंधन के अनुभवों से शिक्षा के क्षेत्र को बेहतर बनाया जाएगा। इसके तहत कुल बजट का 20 फीसदी खर्च किया जाएगा। इसमें पूरे स्कूलों को निजी क्षेत्र को देने के अलावा उनकी मदद प्रबंधन और प्रशिक्षण में भी लिया जाएगा।

इसके दूरगामी प्रभाव होंगे:
(1) सामाजिक तौर पर हाशिए पर खड़े अनुसूचित जाति के बच्चे और लड़कियां इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगी।
(2) अभी जो अध्यापक सरकारी स्कूलों में सेवाएं दे रहे हैं, उन पर भी इस निजीकरण की सीधी मार पड़ेगी।

सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों की दिक्कतों का इलाज निजिकरण करना ही मान कर ही इस तरह के प्रयास किये रहे हैं। जबकि जरूरत है सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों को मजबूत करने का ताकि समाज में एकरूप शिक्षा मिल सके और समाज के वंचित वर्गों को शिक्षा के अधिकार से वंचित न होना पड़े। शिक्षा सभी के लिए सुलभ हो ऐसा प्रावधान होना चाहिए। यदि यह बाज़ार में बिकने वाली वस्तु बन जाती है जिसे माता-पिता को खरीदना पड़े है तो यह शिक्षा की पहुंच पर प्रतिकूल और दूरगामी प्रभाव डालेगा।

*राष्ट्रीय शिक्षा असेंबली की और*
देश की वर्तमान सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की है। आज़ाद भारत की यह तीसरी शिक्षा नीति है। इससे पहले 1986 में शिक्षा नीति बनी थी, यानी 34 वर्षों के बाद शिक्षा नीति लाई गई है। केंद्र सरकार का कहना है कि यह नीति 21वीं सदी के भारत की ज़रूरतों के अनुरूप बनाई गई है। यह शिक्षा नीति असमानताओं को बढ़ाने वाली अर्थव्यवस्था के अनुरूप है। जबकि सरकार के अनुसार नई शिक्षा नीति ‘आज की ज़रूरतों’ को पूरा करने वाली है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में केंद्रीकरण, व्यापारीकरण और सांप्रदायीकरण के रुझान बहुत साफ़ हैं। समूची शिक्षा व्यवस्था के केंद्रीकरण के संकेतों को उच्चतर शिक्षा, स्कूल शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा आदि सभी स्तरों पर देखा जा सकता है। इन स्तरों की शिक्षा व्यवस्था से जुड़े तमाम ढांचों का केंद्रीकरण किया जा रहा है। यही बात शिक्षा के निजीकरण और सांप्रदायीकरण के संदर्भ में भी दिखाई देती है। रुझानों में सिमटी शिक्षा नीति के देश के ताने-बाने पर दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे। ये प्रभाव चिंताजनक हैं। यह नीति देश की बहुसंख्यक आबादी जिनमें दलित, मुस्लिम अल्पसंख्यक, आदिवासी, महिलाएं, ग्रामीण तमाम गरीब लोग शामिल हैं, उन्हें शिक्षा और विकास के दायरे से बाहर धकेलने का ही प्रबंध करती है। निजीकरण, सार्वजनिक संस्थाओं की उपेक्षा, स्कूलों को बंद करना और केवल बड़े कॉलेजों पर निर्भरता आदि सूचक स्पष्ट बताते हैं कि आने वाले वर्षों में भारतीय शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करके विशिष्ट जन आधारित व्यवस्था ही स्थापित की जाएगी। दूसरी ओर, शिक्षा के सांप्रदायीकरण के मंतव्य (जो अनेक तरह से परिलक्षित हो रहे हैं) और बड़ी चुनौती खड़ी करते हैं। इस प्रक्रिया के चलते आने वाला भारतीय समाज कैसा होगा, यह समझना और इसका मुकाबला करना भी बहुत चुनौतीपूर्ण है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 और इसे लागू करने की अनुदार प्रक्रियाएं भारतीय शिक्षा व्यवस्था और जनतांत्रिक समाज के सामने नई चुनौतियां खड़ी करती हैं।

अखिल भारतीय जन विज्ञान नेटवर्क और भारत ज्ञान-विज्ञान समिति इन चुनौतियों का मुकाबला करने के प्रयास कर रहे हैं। राज्य स्तरीय, ज़िला स्तरीय, ब्लॉक स्तरीय तथा गांव स्तरीय सम्मेलन आयोजित करने का आह्वान किया गया है। कला जत्थे निकालकर राष्ट्रीय शिक्षा नीति का विरोध करने की योजना बनी। राज्यों में व्यापक फ्रंट को बनाने और मज़बूत करने का आह्वान किया गया। राज्यों में स्थिति अनुसार प्रयास किए जा रहे हैं। असम, बिहार, ओडिशा, पश्चिमी बंगाल, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि राज्यों में कला जत्थे निकाले जा रहे हैं। अन्य राज्यों में जनसंवाद के लिए गांव स्तर तक बैठकें, गोष्ठियां और सम्मेलन आदि आयोजित किए जा रहे हैं। इस चरण में योजना अनुसार गांव, ब्लॉक, ज़िला, राज्य – विभिन्न स्तरों पर जन संवाद करते हुए राष्ट्रीय असेंबली तक पहुंचना है। इस जनसंवाद से उम्मीद है कि देश-भर में अनेक स्थानों पर जत्थे और अन्य माध्यमों से शिक्षा नीति की आलोचना और उसे लागू करने की प्रक्रिया की समीक्षा करते हुए लाखों लोगों को संबोधित किया जा रहा है।

30 अप्रैल 2023 को दिल्ली में देशव्यापी भागीदारी के साथ एक-दिवसीय जनसभा आयोजित की जाएगी। सभी राज्यों से लगभग 700 से ज्यादा प्रतिभागी शामिल होंगे जो अपने राज्यों में किए गए कार्यों के अनुभव सांझा करेंगे। राष्ट्रीय स्तर के शिक्षाविद्, राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता भी जनसभा को संबोधित करेंगे। जनसभा में अनेक संगठनों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। देश की शिक्षा व्यवस्था में वैकल्पिक नीति क्या है और वर्तमान सत्ता के समक्ष जन विज्ञान आंदोलन की मांगें क्या हैं, इन बिंदुओं पर भी राष्ट्रीय असेंबली में चर्चा की जाएगी। असेंबली के बाद राज्यों में विरोध का अगला चरण शुरू किया जाएगा। इसमें तमाम संगठनों की एकजुटता के प्रयास किये जाएंगे।

 

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