कुल्लू अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव, जो देवभूमि हिमाचल की पहचान और आस्था का पर्व माना जाता है, इस बार एक बेहद चिंताजनक घटना का गवाह बना। रथ यात्रा के दौरान, जब हजारों श्रद्धालु श्री रघुनाथ जी के दिव्य दर्शन और परंपराओं में सम्मिलित होने पहुंचे थे, तभी अचानक उस पवित्र माहौल में एक अनुचित दृश्य देखने को मिला।
सूत्रों के अनुसार, एक तहसीलदार को लोगों ने यह कहते हुए घेर लिया और धक्का-मुक्की की कि वे देवता के समक्ष जूते पहनकर चले गए थे। स्थानीय परंपराओं में यह असम्मानजनक माना जाता है और श्रद्धालुओं की भावनाओं को आहत कर सकता है। लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि क्या ऐसी स्थिति में भीड़ को स्वयं न्याय करने का अधिकार है? और जब यह घटना घट रही थी, तब पुलिस कहाँ थी?
परंपरा बनाम कानून – कौन है बड़ा?
हिमाचल की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं का अपना महत्व है। हर श्रद्धालु जानता है कि देवताओं की पालकी उठाने वाले तक नंगे पांव चलते हैं। ऐसे में जूतों के साथ देव स्थल में प्रवेश करना असावधानी या भूल का परिणाम हो सकता है, परन्तु यह भी स्पष्ट है कि कोई भी अधिकारी या आम व्यक्ति जानबूझकर ऐसी गलती नहीं करता। इस संदर्भ में तहसीलदार की गलती को सुधारे जाने की जगह उनके साथ बदसलूकी और मारपीट करना न केवल कानून के खिलाफ है बल्कि सामाजिक सौहार्द को भी चोट पहुँचाता है।
पुलिस की निष्क्रियता पर सवाल
घटना के दौरान पुलिस मूकदर्शक बनी रही। जब एक सरकारी अधिकारी के साथ गुंडागर्दी हो रही थी, तब कानून व्यवस्था बनाए रखने का दायित्व किसका था? क्या पुलिस ने इस मामले में ड्यूटी में बाधा डालने का केस दर्ज किया? यदि नहीं, तो यह सरकारी तंत्र की कमजोरी का बड़ा उदाहरण है। आम जनता को यह संदेश जा रहा है कि भीड़ के दबाव में आकर कानून की धज्जियां उड़ाई जा सकती हैं और पुलिस तमाशबीन बनी रहेगी।
सामाजिक असुरक्षा की भावना
कुल्लू दशहरा न केवल धार्मिक आस्था का पर्व है, बल्कि यह अंतरराष्ट्रीय पहचान भी रखता है। देश-विदेश से लोग यहाँ देव परंपराओं और रथ यात्रा के दर्शन करने आते हैं। ऐसे में अगर एक उच्च अधिकारी को खुलेआम अपमानित किया जाए, तो यह न केवल प्रशासनिक तंत्र की साख पर चोट है बल्कि समाज में असुरक्षा की भावना भी पैदा करता है।
परंपरा का सम्मान ज़रूरी, पर भीड़ का न्याय अस्वीकार्य
यह सही है कि परंपराओं का सम्मान किया जाना चाहिए और अधिकारी से चूक हुई तो उसे देवता के दरबार में ही इंगित किया जा सकता था। लेकिन क्या भीड़ को यह अधिकार मिल जाता है कि वे खुद सजा देने लगें? हजारों साल पुरानी परंपराओं में भी यह व्यवस्था नहीं है कि देवता की ओर से लोग स्वयं दंड लागू करें। श्रद्धालुओं की आस्था यह मानती है कि यदि कोई गलती करता है तो उसका न्याय स्वयं देवता करते हैं।
सरकार और प्रशासन के लिए चेतावनी
यह घटना सरकार और पुलिस प्रशासन के लिए एक चेतावनी संकेत है। धार्मिक आयोजनों के दौरान प्रशासनिक अधिकारियों की उपस्थिति न केवल व्यवस्था संभालने के लिए होती है, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए भी होती है कि परंपरा और कानून दोनों का सम्मान बना रहे। यदि अधिकारी गलती करता है तो उसके लिए उचित तंत्र मौजूद है। लेकिन अगर भीड़ इस तरह कानून अपने हाथ में लेगी, तो कल किसी आम नागरिक या श्रद्धालु के साथ भी यही स्थिति हो सकती है।
जिम्मेदारी तय करना ज़रूरी
इस घटना के बाद दो महत्वपूर्ण कदम सरकार को उठाने चाहिए:
1. पुलिस की निष्क्रियता की जांच – क्यों मूकदर्शक बनी रही? क्यों तत्काल FIR दर्ज नहीं की गई?
2. परंपराओं और प्रशासन के बीच समन्वय – धार्मिक आयोजनों से पहले अधिकारियों को परंपराओं के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए दिशा-निर्देश दिए जाएं।
कुल्लू दशहरा में तहसीलदार के साथ हुई बदसलूकी केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे प्रशासनिक तंत्र की गरिमा पर हमला है। परंपराओं का पालन हर किसी का दायित्व है, लेकिन उनका उल्लंघन होने पर न्याय की प्रक्रिया कानून से ही तय होनी चाहिए, न कि भीड़ के हाथों। यह घटना हमें याद दिलाती है कि कानून और आस्था के बीच संतुलन बनाए रखना सरकार और समाज दोनों की जिम्मेदारी है।
✍️ *यह रिपोर्ट उपलब्ध स्रोतों और घटनाक्रम पर आधारित एक वेब-जनित समाचार विश्लेषण है।
