हिमाचल प्रदेश के मंडी ज़िले में दिल्ली-मनाली नेशनल हाईवे के फोरलेन निर्माण ने जिस तरह से प्राकृतिक भूगोल के साथ खिलवाड़ किया है, उसका खामियाजा अब लगातार स्थानीय लोगों को भुगतना पड़ रहा है। खासकर पंडोह क्षेत्र में स्थित कैंची मोड़, जो कभी एक सामान्य सड़क मोड़ था, अब बारिश के दिनों में भयावह आपदा का प्रतीक बन चुका है। पिछले कुछ दिनों से हो रही भारी बारिश के कारण यहां लगातार लैंडस्लाइड और शूटिंग स्टोन की घटनाएं सामने आ रही हैं, जिससे आवागमन बाधित हो गया है और स्थानीय लोगों की जानमाल की सुरक्षा पर एक बार फिर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है।
यह कोई पहली बार नहीं है जब इस क्षेत्र में पहाड़ दरकने लगे हों। वर्ष 2023 की आपदा में कैंची मोड़ पूरी तरह से ध्वस्त हो गया था और उसके साथ ही फोरलेन सड़क का एक बड़ा हिस्सा भी तबाह हो गया था। उस समय भारी निवेश के बाद एनएचएआई ने इस हिस्से को दोबारा बनाया, लेकिन निर्माण के तरीके और पर्यावरणीय संतुलन की अनदेखी के कारण यह क्षेत्र पुनः संवेदनशील बन गया है। अब फिर से वही स्थिति बन गई है, जहां सड़क के दोनों ओर ट्रैफिक रोक दिया गया है और स्थानीय प्रशासन को छोटे वाहनों के लिए वैकल्पिक मार्ग सुझाने पड़े हैं।
वास्तविक समस्या उस विकास मॉडल में छिपी है जिसमें पहाड़ों की नैसर्गिक बनावट और वनस्पति को बिना सोचे-समझे काटा गया है। एनएचएआई द्वारा इस फोरलेन निर्माण के तहत की गई खुदाई ने पर्वतीय इलाकों की स्थिरता को बुरी तरह से प्रभावित किया है। जब बारिश होती है, तब पानी इस ढीली मिट्टी में समा जाता है और जब बारिश बंद हो जाती है, तो यही मिट्टी सूखकर और भी अधिक अस्थिर हो जाती है, जिससे भू-स्खलन की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। इसका सीधा असर उन लोगों पर पड़ता है जो इन सड़कों के पास अपने घरों और खेतों के साथ बसे हैं।
स्थानीय लोगों की आजीविका पर इसका प्रभाव अब किसी से छुपा नहीं है। सेब की बागवानी, छोटे दुकानदार, सड़क किनारे बसे रेहड़ी-पटरी वाले और पर्वतीय कृषि पर आश्रित किसान—सभी इस निर्माण से उत्पन्न संकट के शिकार हैं। कई परिवारों ने अपने मकान खो दिए हैं, खेत मलबे में दब चुके हैं और भय का ऐसा वातावरण बन गया है कि हर बारिश के साथ लोग घरों से निकलने से भी डरते हैं। हर बार जब एनएचएआई द्वारा यह दावा किया जाता है कि सड़क को सुरक्षित बना दिया गया है, कुछ ही सप्ताहों में एक नई लैंडस्लाइड उस दावे को झुठला देती है।
कैंची मोड़ जैसे स्थान अब महज भूगोलिक बिंदु नहीं रह गए हैं, बल्कि ये हिमाचल में विकास बनाम विनाश की बहस के प्रतीक बनते जा रहे हैं। इस तरह की निर्माण गतिविधियों से केवल पर्यावरणीय नुकसान नहीं हो रहा, बल्कि यह आपदा प्रबंधन व्यवस्था पर भी प्रश्नचिन्ह लगा रहा है। एनएचएआई की योजनाओं में न तो दीर्घकालीन सुरक्षा के उपाय शामिल हैं और न ही स्थानीय समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित की जाती है। पेड़ काटे जाते हैं, पहाड़ों को काटा जाता है, लेकिन उनके स्थान पर कोई हरियाली नहीं लौटाई जाती, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र पूरी तरह असंतुलित हो चुका है।
इस समय मंडी प्रशासन ने सड़क को बंद कर दिया है और वैकल्पिक मार्गों की जानकारी सोशल मीडिया पर साझा की जा रही है। लेकिन यह केवल एक अस्थायी समाधान है। स्थायी समाधान तब ही संभव होगा जब पर्वतीय राज्यों में विकास के नाम पर हो रहे इस अंधाधुंध निर्माण की जवाबदेही तय की जाए, और नीति-निर्माताओं से लेकर कार्यकारी एजेंसियों तक यह एहसास कराया जाए कि हिमाचल के पहाड़ सिर्फ पत्थर नहीं, जीवंत पारिस्थितिकी तंत्र हैं जिनकी रक्षा अनिवार्य है।
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