लेखक: विशेष संवाददाता, हिमसत्ता मीडिया | बिलासपुर, 8 अक्टूबर 2025
हिमाचल प्रदेश एक बार फिर प्राकृतिक आपदा की चपेट में है। जिला बिलासपुर के झंडूता उपमंडल के भालू गांव में हुए भूस्खलन हादसे में 16 लोगों की दर्दनाक मौत ने न केवल राज्य को शोक में डुबो दिया है, बल्कि यह एक गहरी चेतावनी भी है कि अब हिमाचल के पर्वतीय भू-भाग पहले जितने स्थिर और सुरक्षित नहीं रहे।
यह हादसा केवल एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना नहीं, बल्कि उस पर्यावरणीय और भू-वैज्ञानिक संकट की झलक है जो लगातार हो रही बारिश, अनियंत्रित निर्माण कार्यों, सड़क चौड़ीकरण और वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण अब विकराल रूप ले चुका है।
पहाड़ों की कमजोर होती नींव: बरसात ने बढ़ाई दरारें
हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियों की भू-संरचना मुख्यतः शेल, स्लेट, शिस्ट और क्वार्टजाइट जैसी कमजोर चट्टानों से बनी है। ये चट्टानें पानी सोखने के बाद तेजी से ढीली पड़ जाती हैं। लगातार हो रही बारिश ने मिट्टी के अंदर के दबाव और जल-संतुलन को पूरी तरह बिगाड़ दिया है।
परिणामस्वरूप, पहाड़ों की ढलानें अब पहले से कहीं अधिक अस्थिर हो गई हैं — और थोड़ी-सी बारिश या मानवीय गतिविधि भी बड़े भूस्खलन का कारण बन सकती है।
भालू गांव का हादसा इसी असंतुलन का परिणाम था। बरसों पुरानी पहाड़ी जो स्थानीय लोगों के लिए सुरक्षित मानी जाती थी, इस बार अचानक खिसक गई और देखते ही देखते एक चलती बस को अपने साथ ले गई। यह सिर्फ एक ‘प्राकृतिक हादसा’ नहीं बल्कि प्रकृति की मानव-निर्मित चेतावनी है।
राज्य में बढ़ते लैंडस्लाइड: आंकड़े चिंताजनक
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) और वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ जियोलॉजी, देहरादून की रिपोर्ट के अनुसार, हिमाचल प्रदेश देश के उन शीर्ष तीन राज्यों में शामिल है जहां हर साल सबसे अधिक भूस्खलन की घटनाएं दर्ज होती हैं।
साल 2024 में राज्य में 700 से अधिक भूस्खलन रिपोर्ट हुए थे। इस वर्ष, अक्टूबर 2025 तक ही 500 से ज्यादा घटनाएं दर्ज हो चुकी हैं — जिनमें किन्नौर, चंबा, मंडी, कुल्लू और लाहौल-स्पीति सबसे अधिक प्रभावित जिले रहे हैं।
मानव हस्तक्षेप ने बढ़ाई प्रकृति की मार
भूवैज्ञानिक विशेषज्ञों का कहना है कि हिमाचल में लैंडस्लाइड की आवृत्ति केवल बारिश से नहीं, बल्कि अनियंत्रित सड़क चौड़ीकरण, हाइड्रो प्रोजेक्ट्स, होटल निर्माण और अनियमित ब्लास्टिंग कार्यों से भी कई गुना बढ़ी है।
हर पहाड़ी जो कभी पेड़ों और जड़ों से स्थिर थी, आज कंक्रीट और डामर से ढकी हुई है।
पेड़ों की जड़ें मिट्टी को पकड़कर रखने का प्राकृतिक माध्यम थीं, लेकिन अब उनकी जगह मशीनों ने ले ली है।
नतीजतन, थोड़ी सी बारिश भी मिट्टी के कटाव और ढलानों के फिसलने का कारण बन जाती है।
अब जरूरी है “पूर्व चेतावनी प्रणाली” (Early Warning System)
विशेषज्ञों का मानना है कि अगर **भूस्खलन संभावित क्षेत्रों का वैज्ञानिक सर्वेक्षण और मॉनिटरिंग सिस्टम** पहले से स्थापित हो, तो ऐसी कई जानें बचाई जा सकती हैं।
भारत में अब तक बहुत सीमित स्थानों पर लैंडस्लाइड अर्ली वार्निंग सिस्टम स्थापित हैं, जबकि हिमाचल जैसे संवेदनशील राज्य में इसकी जरूरत हर पर्वतीय तहसील में है।
राज्य सरकार को चाहिए कि NDMA और IMD (भारतीय मौसम विभाग) के साथ मिलकर जोखिम मानचित्रण (Hazard Mapping) की प्रक्रिया को तेज करे।
इसके तहत हर जिले के संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान की जाए, जहां नियमित अंतराल पर सैटेलाइट निगरानी, सेंसर आधारित अलर्ट और जियो-टेक्निकल सर्वेक्षण किए जा सकें।
ग्रामीण बस्तियों की सुरक्षा और पुनर्वास
भूस्खलन से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं ग्रामीण क्षेत्र, जहां लोग पहाड़ियों की तलहटी या ढलानों पर बसे हुए हैं। भालू गांव जैसी जगहों में सैकड़ों परिवार ऐसे हैं जो दशकों से इसी पहाड़ी पर घर बनाकर रह रहे हैं।
सरकार को अब ऐसी बस्तियों का पुनर्मूल्यांकन (Reassessment) करना होगा। जिन जगहों को “रेड जोन” में चिन्हित किया गया है, वहां रहने वाले परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित करने की योजना बनानी चाहिए।
साथ ही, पंचायत स्तर पर स्थानीय आपदा प्रबंधन समितियों को सशक्त बनाना होगा ताकि शुरुआती चेतावनी पर तुरंत कार्रवाई हो सके।
भविष्य की राह: विकास और सुरक्षा में संतुलन
हिमाचल प्रदेश पर्यटन, ऊर्जा और सड़क विकास के नाम पर तेजी से बदल रहा है, लेकिन विकास की यह रफ्तार कहीं **प्रकृति की सीमा से आगे तो नहीं बढ़ रही?**
भालू गांव का हादसा हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम आने वाले वर्षों में ऐसी और त्रासदियों के लिए खुद जिम्मेदार बन रहे हैं?
राज्य को अब “विकास के साथ सुरक्षा” (Development with Safety) की नीति अपनानी होगी।
भू-संवेदनशील इलाकों में निर्माण सीमित किया जाए, स्थानीय पारिस्थितिकी को ध्यान में रखते हुए प्रोजेक्ट्स को मंजूरी दी जाए और हर जिले में भूस्खलन मॉनिटरिंग केंद्र स्थापित किए जाएं।
भालू गांव का हादसा हिमाचल की उन असंख्य पहाड़ियों की कहानी है जो धीरे-धीरे खोखली हो रही हैं।
यह चेतावनी है कि अगर हमने अब भी सबक नहीं लिया, तो आने वाले मानसून में ऐसे हादसे अपवाद नहीं, बल्कि दैनिक समाचार बन जाएंगे।
प्रकृति हमें हर बार संकेत देती है — और यह समय है कि हम उसे सुनें, समझें और संभलें।
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