हिमाचल प्रदेश में अवैध कब्जाधारियों को लेकर वर्षों से चल रही कानूनी बहस पर मंगलवार को उच्च न्यायालय ने एक बड़ा और ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। प्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की उस नीति को पूरी तरह खारिज कर दिया है, जिसके तहत सरकारी जमीन पर पांच बीघा तक के अवैध कब्जों को नियमित किया जाना प्रस्तावित था। अदालत ने इस नीति को असंवैधानिक और मनमाना करार देते हुए इसे खारिज कर दिया और निर्देश दिए कि 28 फरवरी 2026 तक प्रदेश भर में सरकारी भूमि पर से अतिक्रमण पूरी तरह हटा लिया जाए। इस फैसले का सीधा असर 1 लाख 67 हजार से अधिक उन लोगों पर पड़ेगा, जिन्होंने वर्षों पहले इस नीति के तहत अपने अवैध कब्जों को वैध करवाने के लिए आवेदन कर रखा था।
न्यायाधीश विवेक सिंह ठाकुर और न्यायाधीश बिपिन चंद्र नेगी की खंडपीठ में इस मामले की सुनवाई हुई। याचिका पूनम गुप्ता की ओर से दाखिल की गई थी, जिसमें वर्ष 2002 में भाजपा सरकार द्वारा लाए गए संशोधन—हिमाचल प्रदेश भूमि राजस्व अधिनियम की धारा 163-A—को चुनौती दी गई थी। इस धारा के तहत सरकार ने सरकारी भूमि पर पांच से बीस बीघा तक के अवैध कब्जों को नियमित करने की सुविधा दी थी। कोर्ट ने 44 पन्नों के विस्तृत फैसले में साफ किया कि यह धारा पूरी तरह संविधान विरोधी है और इससे कानून के शासन का उल्लंघन होता है।
अदालत ने अपने निर्णय में सरकार को भी सुझाव दिए हैं। कोर्ट ने कहा कि उत्तर प्रदेश, ओडिशा और कर्नाटक जैसे राज्यों की तर्ज पर हिमाचल प्रदेश सरकार को भी ‘क्रिमिनल ट्रेसपास’ से जुड़ी धाराओं को सख्त बनाना चाहिए ताकि सरकारी भूमि पर दोबारा अतिक्रमण न हो सके। कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि सरकारी जमीन से अतिक्रमण हटाने का कार्य तुरंत शुरू किया जाए और यह कार्य तय सीमा यानी 28 फरवरी 2026 तक हर हाल में पूरा कर लिया जाए। साथ ही यदि किसी व्यक्ति को किसी अदालत से अतिक्रमण न हटाने की कोई राहत मिली है, तो वह भी अब निरस्त मानी जाएगी।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1983 में तत्कालीन राज्य सरकार ने 5 बीघा तक के अवैध कब्जों को ₹50 प्रति बीघा शुल्क लेकर नियमित करने की नीति लागू की थी। इसके बाद 5 से 10 बीघा तक के कब्जों पर बाजार मूल्य के तीन गुना, 10 से 20 बीघा पर दस गुना जुर्माना लगाने और 20 बीघा से अधिक कब्जों को बेदखल करने का प्रावधान रखा गया था। इन नीतियों में समय-समय पर संशोधन होते रहे, जिनमें वर्ष 1987 में कटऑफ तिथि 30 अगस्त 1982 तय की गई थी। लेकिन अब कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि ऐसी सभी नीतियां असंवैधानिक हैं और इनका अब कोई वैधानिक अस्तित्व नहीं है।
इस निर्णय से न केवल भविष्य में सरकारी भूमि की रक्षा को बल मिलेगा बल्कि यह भी सुनिश्चित होगा कि सरकारी नीतियां जनहित में पारदर्शिता और विधिसम्मत आधार पर ही बनाई जाएं। अदालत के फैसले से प्रदेश सरकार की प्रशासनिक नीति पर भी प्रश्नचिह्न लगे हैं, जो लंबे समय से इस तरह की जन-आशाओं पर टिकी थी। अब सभी निगाहें सरकार पर टिकी हैं कि वह कोर्ट के निर्देशों को किस तरह लागू करती है और अतिक्रमण हटाने की कार्यवाही को कैसे आगे बढ़ाया जाता है।
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