हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में दायर CWP No. 14797/2025 ने पूरे राज्य ही नहीं, बल्कि देश भर में 2015 संशोधन से पूर्व के खनन पट्टों और उनके नवीनीकरण को लेकर एक महत्वपूर्ण कानूनी व नीतिगत बहस छेड़ दी है। इस याचिका ने पुराने पट्टा धारकों के अधिकार, खनन नीति की निरंतरता, राज्य स्तरीय आरक्षण अधिसूचनाओं की वैधता और धारा 8A(3) के अंतर्गत 50 वर्ष की पट्टा अवधि जैसे गंभीर संवैधानिक प्रश्नों को केंद्र में ला दिया है।
याचिका में उन सभी सरकारी आदेशों, नोटिसों और निर्णयों को अवैध, शून्य और असंवैधानिक घोषित करने का आग्रह किया गया है, जिनके कारण पट्टा अवधि को 50 वर्ष तक बढ़ाने का लाभ नहीं मिल पाया। साथ ही, यह भी अनुरोध किया गया है कि राज्य सरकार और संबंधित प्राधिकरण सभी लंबित वन एवं खनन अनुमतियों पर शीघ्र, निष्पक्ष और विधिसम्मत निर्णय लेने के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करें।
**सर्वोच्च संवैधानिक प्रश्नों पर बहस**
अधिवक्ता गणेश बरोवालिया के अनुसार, यह याचिका सिर्फ व्यक्तिगत राहत तक सीमित नहीं है, बल्कि व्यापक संवैधानिक व नीतिगत मुद्दों को उठाती है। मुख्य प्रश्न यह है कि क्या 2015 संशोधन से पहले का एक bona fide खनन पट्टा धारक, जिसने नियमों का पालन किया हो और लगातार नवीनीकरण के प्रयास किए हों, केवल पूर्व में हुई किसी तकनीकी अस्वीकृति या निरस्तीकरण के आधार पर 50 वर्ष की विस्तारित अवधि से वंचित किया जा सकता है?
दूसरा बड़ा मुद्दा धारा 8A(9) की कठोर और यांत्रिक व्याख्या से जुड़ा है। याचिका का तर्क है कि इस धारा के भेदभावपूर्ण अनुप्रयोग ने समान स्थिति वाले पट्टा धारकों के बीच अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करते हुए एक असंगत वर्गीकरण पैदा कर दिया है।
इसके अलावा, यह भी सवाल उठाया गया है कि क्या राज्य स्तर की कोई आरक्षण अधिसूचना—जैसे वर्ष 1986 में जिला सिरमौर के लिए जारी अधिसूचना—पूर्व से वैध अधिकारों को बाद में समाप्त कर सकती है? यह बहस इस बात पर केंद्रित है कि कानून वास्तविक, स्थानीय खनन उद्यमियों के साथ कैसा व्यवहार करे, जिन्होंने वर्षों तक खनन क्षेत्र के साथ-साथ वनीकरण और पर्यावरण संरक्षण में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
राष्ट्रव्यापी प्रभाव डाल सकता है यह मामला
इस याचिका का प्रभाव हिमाचल प्रदेश की सीमाओं से कहीं आगे जा सकता है। देश भर में ऐसे हजारों पट्टा धारक हैं जिनके नवीनीकरण आवेदन तकनीकी या प्रक्रियात्मक आधार पर अस्वीकृत हुए थे, परंतु अब वे धारा 8A(3) के तहत 50 वर्ष की अवधि की मांग कर रहे हैं। यदि हाई कोर्ट इस मामले में व्यापक व्याख्या करता है, तो यह पूरे देश की खनन नीति और प्रशासनिक प्रक्रियाओं को प्रभावित कर सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह मामला पुराने खनन पट्टों के अधिकारों, पर्यावरणीय दायित्वों और नवीनीकरण प्रक्रिया की पारदर्शिता जैसे प्रमुख मुद्दों को नए ढंग से परिभाषित कर सकता है।
अधिवक्ता गणेश बरोवालिया की रणनीति और प्रस्तुति
इस याचिका को अधिवक्ता गणेश बरोवालिया ने एक समग्र चुनौती के रूप में प्रस्तुत किया है। इसमें व्यक्तिगत आदेशों की वैधता, धारा 8A(9) के भेदभावपूर्ण अनुप्रयोग और 1986 की आरक्षण अधिसूचना—तीनों को एकीकृत संवैधानिक ढांचे में चुनौती दी गई है।
उन्होंने पिछले चालीस वर्षों की रिकॉर्ड श्रृंखला (Annexures P-1 से P-29) को न्यायालय के समक्ष रखकर तथ्यात्मक पृष्ठभूमि को विस्तार से प्रस्तुत किया है। साथ ही, मामले को अनुच्छेद 14 एवं 21 से जोड़ते हुए समानता, जीवन, आजीविका और Legitimate Expectation जैसे सिद्धांतों को केंद्र में रखा गया है। इस दृष्टिकोण ने इस याचिका को एक मॉडल केस के रूप में स्थापित किया है, जो पर्यावरण संरक्षण और स्थानीय औद्योगिक विकास के बीच संतुलन पर भी महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है।
हाई कोर्ट ने मांगा जवाब
01 दिसंबर 2025 को उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार, भारत सरकार (खनन मंत्रालय), वन विभाग और संबंधित खनन प्राधिकरणों को नोटिस जारी कर याचिका में उठाए गए सभी सवालों पर जवाब तलब किया है। इससे साफ है कि अदालत इस विषय को गंभीरता से सुनने जा रही है और आने वाले महीनों में इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर कानूनी बहस और तेज हो सकती है।
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