हिमाचल कांग्रेस में फेरबदल के बाद अब राजनीति नए मोड़ पर खड़ी है। विनय कुमार को अध्यक्ष बनाकर पार्टी ने साफ संदेश दे दिया—अब सोच बदलेगी, समीकरण बदलेंगे और नेता भी बदलकर चलने पड़ेंगे। वीरभद्र सिंह का दौर खत्म तो हुआ, पर उनका असर आज भी पार्टी की रगों में दौड़ता है। उधर सुक्खू सरकार को भी हर फैसले पर विरोध का बोझ उठाना पड़ रहा है। अब असली कसौटी यही—क्या सबको साथ रखा जाएगा या फिर BJP इस उथल-पुथल को एक मौका समझकर चाल चलेगी? आने वाला समय पहाड़ की सियासत का रुख तय करेगा।
हिमाचल की राजनीति हमेशा से पहाड़ की ढलानों की तरह रही है—कभी सीधी, कभी टेढ़ी, और कभी अचानक नीचे लुढ़कने का डर। प्रदेश कांग्रेस में बीते महीनों से यही उतार-चढ़ाव दिखाई दे रहे थे। संगठन में खिंचातानी, असंतोष और पुराने-नए नेताओं की खामोश खींचतान अब एक निर्णायक मोड़ पर पहुंच गई है। हाईकमान ने आखिरकार विनय कुमार को नया प्रदेश अध्यक्ष बनाकर एक ऐसा रास्ता चुना है, जिसने पहाड़ की राजनीति में नई हलचल पैदा कर दी है।
हिमाचल के लोग इस फैसले को दो नजरों से देख रहे हैं। पहली—कि कांग्रेस 35 साल बाद सामाजिक प्रतिनिधित्व के उस हिस्से को फिर सम्मान दे रही है जिसे लंबे समय से सिर्फ मंचों पर याद किया जाता था। दूसरी—कि यह कदम राहुल गांधी और हाईकमान एक बड़ा राजनीतिक संदेश देने के लिए उठा रहे हैं, जिसमें बदलाव की भाषा है, नई सोच का दावा है और नेतृत्व को लेकर एक स्पष्ट दिशा है। लोग कह रहे हैं कि दिल्ली ने साफ कर दिया है—अब हिमाचल कांग्रेस को उसी पुरानी राजनीति से बाहर निकलना पड़ेगा जिसमें कुछ ही चेहरे फैसले करते थे और बाकी चुपचाप सिर हिलाते रहते थे।
लेकिन नया अध्यक्ष बनते ही चुनौती भी छोटी नहीं। विनय कुमार को ऐसे समय में कमान मिली है जब पार्टी दो बड़े खेमों में बंटी है—एक, मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू का; दूसरा, वीरभद्र सिंह की राजनीतिक विरासत का। सुक्खू को लेकर आम धारणा यही रही है कि वे फैसले जल्दी लेते हैं, पर कई बार उनका अंदाज़ बाकी नेताओं को साथ लेकर चलने वाला नहीं माना जाता। मंत्रिमंडल से लेकर नियुक्तियों तक, असंतोष की फुसफुसाहटें चारों तरफ रही हैं। अब यह देखना होगा कि विनय कुमार इन भावनाओं को ठंडा करके संगठन को एक धागे में पिरो पाते हैं या नहीं।
दूसरी तरफ वह विरासत है जो हिमाचल की राजनीति पर दशकों तक हावी रही—राजा वीरभद्र सिंह का दौर। वह दौर जिसमें फैसला राजभवन रोड से नहीं, ‘रियासतदार’ की राजनीति के वजन से होता था। वीरभद्र सिंह का निधन हुआ, लेकिन उनका असर खत्म नहीं हुआ। रानी प्रतिभा सिंह की अध्यक्षता और उसके बाद उनकी नाराजगी यह साफ जाहिर करती रही है कि यह कुनबा आज भी पार्टी की रीढ़ का एक मजबूत हिस्सा है। कई विधायक, कई नेता आज भी खुद को ‘राजा साब के आदमी’ कहते हैं और यह भावना संगठन में अक्सर हलचल पैदा करती है।
अब विनय कुमार के सामने सबसे बड़ा सवाल यही कि वह इन दो पहाड़ों—सुक्खू और वीरभद्र विरासत—के बीच वह पुल बना पाएंगे या नहीं, जिसकी खोज पार्टी महीनों से कर रही है। अगर यह संतुलन नहीं बना, तो आने वाला समय कांग्रेस के लिए मुश्किल हो सकता है। हिमाचल में BJP हर मौके पर यह साबित कर चुकी है कि विरोधी दल की छोटी-सी दरार को भी वह अपना सबसे बड़ा अवसर बना देती है। यह भी चर्चा अक्सर हवा में रहती है कि राजनीतिक परिस्थितियाँ बिगड़ें तो कुछ चेहरे दूसरी तरफ चला भी सकते हैं। पहले भी विक्रमादित्य सिंह को लेकर ऐसी बातें चली थीं और अब भी यह संभावना पूरी तरह खत्म नहीं कही जा सकती।
कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि BJP इस स्थिति को एक बड़े मौके की तरह देख रही है और आने वाले महीनों में प्रदेश सरकार को अस्थिर करने की कोशिशें तेज हो सकती हैं। कैप्टन अमरिंदर सिंह की नई भूमिका को लेकर भी बातें चल रही हैं कि वह हिमाचल में भाजपा के लिए राजनीतिक सेतु बन सकते हैं।
इन सब के बीच कांग्रेस के लिए सबसे जरूरी है कि वह अपने अंदर की टूट-फूट को थामे, नई सोच को जमीन दे, और पुराने अनुभव को सम्मान दे। हिमाचली राजनीति में अक्सर कहावत कही जाती है—“पहाड़ एकजुट हो जाए तो तूफान भी रास्ता बदल देता है।” यह कहावत आज कांग्रेस के लिए और भी ज्यादा सच लगती है।
विनय कुमार की नियुक्ति एक अवसर है—पर किसके लिए बनेगी? पार्टी के लिए या विरोधियों के लिए? इसका जवाब अब आने वाले महीनों में मिलेगा।
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